शून्य
हज़ारों हैं, इस दुनिया में एक में भी उनमें समझ न पाता मेरी पहचान क्या सब में | चलतें हैं, सीधी रेखाओं में जुड़ूं क्या में भी उसमें ? समझ न पाता मेरी दास्ताँ क्या सब में | नीलाम करतें हैं सपने, सस्ते में बाँटू क्या मैं भी रूह, ख़ैरात में ? समझ न पाता मेरा इमान क्या सब में | जीते हैं, कोयले की खानों में फेकू क्या मैं भी दिया, कुवें में ? समझ न पाता मेरी लौ कहाँ सब में | शायद यह, वो सफ़र है जिसका कोई अंत नहीं कैसे हिम्मत जुटाऊं इसका कोई अंदाज़ा नहीं | देखता हूँ, तेरी ओर बड़ी उम्मीद से क्या तुझे, उसकी दरकार नहीं ? सभी तो मानते तुझे ख़ुदा मेरी मुराद, क्यों पूरी नहीं ? रोशन कर इस जीवन को शून्य बनकर, ख़त्म होना में चाहता नहीं |