रेल की पटरी
ये  रेल की पटरी
न जाने कहाँ से निकलती 
पर मेरे गाँव ये रूकती | 
आज में इसका मुसाफ़िर हूँ
धमकते शहर तक 
में इसका हमसफ़र हूँ | 
गुज़रे ये
उज्जड़े मकानों से
वीरान खंडरो से |
सिसकतीं आहटें
दब गयीं हैं
इस के शोर में |
चमते जो गाँव थे
दियों से जो रोशन थे
आज अँधकार से सजे हैं |
बेग़ैरत बदमाशों ने
इनको लूटा है
और हर नियम को तोडा है |
शहर की ऊँची इमारतें
कई आँखों का सपना है
बुलंद इरादों ने, जो बुना है |
आबाद है जीवन यहाँ
जिसे संघर्ष ने सींचा है
मज़बूत कंधो पर, ये टिका है | 
मुस्कुराहटों से सजा 
एक घर नज़र आता है 
तब जाके, अपना मकसद समझ आता है | 
फिर लौटे उन्नति वहाँ,
जहाँ ग़रीबी का साया है | 
उन मासूमों को,
अपनी मेहनत का हक़ मिले, 
जिन्होंने लोहा पीटकर,
इन शहरों को सजाया है |