मुसाफिर और किताब
एक किताब नजर आती है
झांकती खिड़कियों पार
सजी है मिट्टी की परतो से
उलझी है जालो में हज़ार ।
भटका एक मुसाफिर है
जो पहुंचा उसके पन्नों पार
लेके अपने हाथों में
तोड़े उसने ताले हज़ार ।
करता रहा कथन लबों से
पढ़ता गया पंक्तियाँ अपार
की महकती रहे उसके ज़हन में
यह कहानी सालों हज़ार ।
बसाकर अपनी सांसों में
चुरा ली उसने एक किताब
चुकाता क्या किमत उसकी
थी कोड़ियाँ उसके पास, गिंके हज़ार ।